संगीत और समाज: एक विश्लेषणात्मक अध्ययन
Periodic Research (P:
ISSN No. 2231-0045 RNI No. UPBIL/2012/55438 VOL.-IV, ISSUE-IV, May-2016 E: ISSN
No. 2349-9435)
Abstract
एसोसिएट प्रोफेसर
संगीत विभाग,
राजस्थान विश्वविद्यालय,
जयपुर
यदि वर्तमान काल क े संगीत पर दृष्टिपात करें तो समाज में घटते नैतिक
मूल्यों क े कारण आज जिस प्रकार सामाजिकता की अपेक्षा व्यक्तिवाद हावी होता जा
रहा है एवं व्यक्ति आज सामाजिक इकाई क े रूप में नहीं अपितु एक स्वतंत्र सोच
एवं अस्तित्व के रूप में उभर कर आ रहा है, उसक े कई लाभ एवं नुकसान हमें प्राप्त
हुए हैं। वैज्ञानिक उन्नति एवं विकास, बाज़ारवाद, व्यावसायिकता, प्रतिद्वन्द्विता,
वैश्वीकरण, ग्लोबलाइज ़ेशन ज ैसे विकसित महसूस किये जाने वाले बाह्य प्रभावा ें म ें
व्यक्ति ने विकास क े कई पायदान तो पार कर लिये, किन्तु यदि इसका नीतिगत
सामाजिक मूल्यांकन किया जाये तो पहले समाज का जो ढ़ांचा था, जिसमें नैतिक
मूल्य थ े, महापुरूषों क े आदर्श थ े, मां-पिता गुरूओं के सान्निध्य में ज्ञान क े श्रेयात्मक
व प्रेयात्मक विकास के साथ सामाजिक हित की भावना सर्वोपरि थी। व्यक्ति की
विकास की यात्रा में समाज का प्रत्येक वर्ग सम्मिलित था, आज हम देखें तो व्यक्ति
उस उत्कर्ष पर अकेला खड़ा दिखाई देता है? क्या यह वास्तविक विकास है, समाज
क े इसी ढांचे को क्या आदर्श की स्थिति मानी जायेगी?, ये प्रश्न आज का अहम्
प्रश्न है! आज चाहे हम सभी मानकों को विकास क े दायरे में मानें परन्तु जो बात
सबसे प्रमुख रूप से म ुखर रूप से वर्तमान समाज और उसमें पनप रही कला म ें
सामने उभर कर सामने आती है वह है कि आज हर क्षेत्र में असली व नकली का
भेद मिट गया या यों कहें कि जो समाज और कला का वास्तविक विशुद्ध रूप था,
एवं उसका रीढ़ रूप पारम्परिक स्वरूप था, उसके स्थान पर उसमें मिश्रित संस्कृतिया ें
एवं बढ़ती वैज्ञानिकता, विदेशी प्रभावा ें एवं निजीवाद या व्यक्तिवाद आदि कारणों क े
रहते हमारी परम्पराएं एवं भारतीय संस्कृति, जो हमारी पहचान थी, वे हमारी कलाओं
से लुप्त हा ेती जा रही है। घरानों की छत्रछाया में जो कलाकार का विकास होता था
उसमें साध्य रागांे की सही साधना संगीत में दिखाई देती थी, बंदिशें जो घरानों क े
सृजनात्मक धरातल पर राग-साधना का सही मार्ग हमें बताती थीं, गुरूओं क े
श्रद्धाप ूर्ण अनुसरण एवं उनकी सुश्रुषा के प्रतिफल से गुरू-शिष्य के सौहार्द्रपूर्ण संबंधा ें
एवं अनुशासनात्मकता के दायरे में संगीत-शिक्षा का समुचित आदान-प्रदान होता था,
आज उसका क्या सार्थक स्वरूप दिखाई दे रहा है? घरानों क े संक ुचित दायरे स े
जहां संगीत शिक्षा शिक्षण-संस्थानों के व्यापक दायरे में पहुंच गई है क्या संगीत का
वही स्तर वहां दृष्टव्य है जो घरानों में पनपता रहा है और हमें एक से एक महान ्
कलाकार प्राप्त हुए, जिन्होंने भारतीय संगीत का सही स्वरूप समक्ष रखा था। आज
क्या भीमसेन जोशी, मोहम्मद रफ़ी, एवं मन्नाडे जैसे कलाकार क्या फिर भारत में पैदा
हा ेंगे? बढ़ते विदेशी प्रभाव से फ्यूज़न, रीमिक्स, नये साज़, नये राग, शुद्ध रागों की
अपेक्षा मिश्रित या परिवर्तित रागों क े आधुनिक स्वरूप का बढ़ता चलन एवं विदेशी
साज़ों का प्रयोग ज ैसे कई विकसित स्वरूप, आज विविध संगीतों का इंद्र धनुषीय
मिश्रण या मेल, विवादी स्वरों का बहुतायक प्रयोग, सौ ंदर्य व रस क े आग्रह एवं
फिल्मी प्रभाव से आवाज़-लगाव व प्रस्तुतिकरण में शुद्धता का अभाव, शैलीगत विभेद,
घरानों से हटकर निजी सोच व अदायगी को प्रम ुखता देने, माइक्रोफोनिक संगीत स े
आवाज ़-लगाव में परिवर्तन, रफ्तारी ज़िंदगी क े कारण संगीत-साधना एवं
प्रस्तुतिकरण को शाॅर्टकट बना देने से संगीत में विशुद्ध, समुचित, संर्वांगीण, सम्पूर्ण
विकास एवं आनन्द को हम स्थापित नहीं कर पा रहे, जो कि हमारे भारतीय संगीत
का वास्तविक उद्देश्य हुआ करता था, जो सत्, चित् एवं आनंद अर्थात् सच्चिदानंद
का साक्षात्कार कराता था। आज प्रतिद्वंद्विता एवं भागदौड़ की जिं़दगी में संगीत की
यौगिक साधना एवं सुक ून अथवा शा ंति गायब हो गई। विदेशी संगीत की भांति
धूम-धड़ाका एवं तेज ध्वनि का प्रयोग भारतीय संगीत में भी समाविष्ट हा े गया। क्या
आज पुराना फिल्मी संगीत, जो आत्मा पर असर करता था, वह वापस लौटेगा?
ध्रुवपद में आज पखावज के साथ लड़त-भिडंत का समाव ेश आध ुनिक काल में
समाहित हो गया। ध्रुवपद की पुरातन सुक ून देने वाली गायकी फिर डागर बंधुओं क े
रस-पूर्ण गायन के साथ वापस लौटेगी आदि-आदि।
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