भारतीय भूमिगत वाव-एक अद्भ ुत स्थापत्य Indian Underground Vav - A Wonderful Architecture
Anthology The Research:(ISSN: 2456–4397 RNI No.UPBIL/2016/68067 Vol-5* Issue-9* December-2020)
शोध छात्रा,
चित्रकला विभाग,
दयालबाग शिक्षण संस्थान,
आगरा, उत्तर प्रदेश, भारत
Abstract
पीछे के उद्देश्य को उजागर करना चाहूंगी कि क्यों वावों को निर्मि त करने की जरूरत
ज्ञात हुई? सामान्य तथा सामान्य से अधिक वर्षा वाले भौगोलिक क्षेत्रों म ें तालाब आसानी
से बनाए जा सकते है ं, लेकिन जहां वर्षा कम होती है और जल का संरक्षण भी जरूरी हो,
वहां जल संचयन करना बहुत कठिन होता है। किसानों को ऐसा एहसास हुआ कि फसल
सिंचाई तथा मानसून अपवाह रोकने हेतु बड़े आकार के जलागमों का निर्माण करना जरूरी
है तथा इसलिए आवश्यकता एवं सरलता के माध्यम को ध्यान म ें रखते हुए उन्होंने वर्षा के
जल को अधिकृत करने हेतु रूप का विकास किया और वो था कुएँ व तालाब।
‘When the well’s dry, we know the worth of water’ - Benjamin Franklin
प्राचीन काल से ही म ूल रूप से कुएँ गहरे गड्डे, चट्टान से उत्कीर्ण कुएँ या
फिर पानी के तालाब होते है ं जिनमें पानी तक जाने के लिए सीढ़ीयां बनी होती है ं जिनको
क्षेत्रीय विभिन्नता तथा मातृभाषा के आधार पर भिन्न-भिन्न नामों जैसे संस्कृत शिल्प शास्त्रों
व प्राचीन लेखों म ें कुएँ को वापी या वापिका, कर्कन्धु, शकन्धु ; गुजरात म ें वाव, वाई ;
कर्नाटक निवासी कन्नड़वासी कल्याणी, पुष्करमी ; महाराष्ट्र निवासी बारव आदि नामों से
संबोधित किया जाता है। वाव पश्चिमी भारत म ें स्थापत्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यह
वास्तुकला का उत्कृष्ट नम ूना हैं। 7वीं शताब्दी से प्रचलित भूमिगत वाव वास्तुकला का
अनूठा रूप हैं जो कि म ुख्य रूप से राजस्थान तथा गुजरात क्षेत्रों में पाये जाते हैं, जहां पर
‘जल बिन सब सून‘ वाली स्थिति है।
भारत में गुजरात राज्य के अतिरिक्त बावड़ियाँ लखनऊ, राजस्थान, दक्षिण
भारत, नई दिल्ली, कर्नाटक आदि क्षेत्रों म ें भी पाई जाती है ं। राजस्थान निर्मि त बावड़ियाँ
गुजरात क्षेत्र में पाये जाने वाले वावों की तुलना में अलग संरचना की हैं। साथ ही
कर्नाटक म ें भी हमें सीढ़ीदार कुएँ पाये जाते है ं जिनकी संरचना कुंड के समान है।
निष्कर्षतः कहे सकते हैं कि बावड़ियां प्राचीन जल संरक्षण प्रणाली का प्रम ुख
स्त्रोत रही है ं जिनमें उपलब्धता एवं प्राप्ति की दृष्टि से काफी विषमतायें मिलती हैं। य े
वास्तुकृतियां किसी व्यक्तिगत अहं, प्रदर्शन या समृद्धि हेतु नहीं बनती थीं बल्कि जल से
संबंधित ये इमारतें सार्वजनिक उपयोग हेतु बनाई जाती थीं जो ‘सर्वजन हिताय एवं
सर्वजन सुखाय‘ के उद्देश्य को पूर्ण करने में सक्षम रहीं।
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http://www.socialresearchfoundation.com/upoadreserchpapers/7/403/2101200753481st%20varsha%20bansal.pdf
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